Sunday

तलाश सुबह की

यातनाओं के घने कोहरे में
भ्रम के जंगलों के बीच
टूटी उलझी कल्पनाएँ
रास्ते तलाशती है,
दर्द का समंदर पीने के बाद
रेगिस्तान की आँधियों में
थकी कमज़ोर आँखें
नदी का आगोश तलाशती हैं,
अँधेरा ख़त्म न हो सकेगा
जिन्दगी ख़त्म होने तक
फिर भी हर रात
मुट्ठी भर सुबह तलाशती है.

Saturday

माँ....

तुलसी चौरे पर हर सांझ
दीप जलाती मेरी माँ
दिनभर गृहस्थी की फटी गुदड़ी में ,
पैबंद लगाने की अपनी सारी
जद्दोज़हद के बाबजूद,
अतीत के बक्से से निकालकर
सुख की चादर लपेट लेती है ।
सर्वे भवन्तु सुखिनः ....
उसकी प्रार्थना के स्वरों में
घुल जाते हैं ,
कितने ही मंदिरों के घंटों और
मस्जिदों के अजानों के स्वर ।
विश्व मंगल की कामना करती
बंद आंखों से पिघलने लगते हैं,
दिनभर में समेटे दर्द के शिलाखंड
हारी हुई लड़ाइयों से जूझने की विवशता ,
फिर कुछ ही पलों में माँ
अपने ईश्वर को उसकी दी हुई
सारी पीड़ा लौटा देती है ,
और समेट लेती है
नन्हे से दिए का मुट्ठी भर उजाला,
उकेरने लगती है
हम सब की ज़िन्दगी के ,
काले अंधियारे पृष्ठों पर
सुख के सुनहले चित्र।

Sunday

मैं औरत.....

मेरे आस-पास की औरतें
अब बदल रहीं हैं,
औरतपन बरक़रार रखते हुए भी,
अपना अलग इतिहास लिख रहीं हैं,
मेरे आस-पास की औरतें
अब बेटियों को अपनी,
उतरन की विरासत सोंपने की बजाय
नया लिबास गढ़ते हुए
उसकी आंखों में
अपने सपने भर रहीं हैं,
मेरे आस-पास की औरतें
जो काली परछाइयों सी
दीवारों पर लटकी थीं,
अब दिन के उजाले में
वजूद का अहसास दिला रहीं हैं,
मेरे आस-पास की औरतें
बड़ी पापड़ सुखाते हुए,
रगड़ रगड़ कढ़ाई चमकाते हुए,
सजती निखरती हुई,
आईने में ख़ुद को देख इतरा रहीं हैं,
मेरे आस-पास की औरतें
इतना सब होते हुए भी
हर बारिश के बाद
परम्पराओं की संदूकची से
संस्कारों के पुराने कपड़े निकाल
धूप दिखा रहीं हैं ।
महिला दिवस 09