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मैं एक क़स्बा......

मैं एक क़स्बा हूँ। जिस तरह प्रेमचंद का होरी तत्कालीन भारतीय किसान का प्रतिनिधित्व करता था, वैसे ही आप मुझे समकालीन कस्बों का प्रतिनिधि समझ सकते हैं, वैसे ये मेरा बड़बोलापन है पर इसे आपको मेरी कस्बाई मानसिकता की मजबूरी समझ कर झेलना होगा। कभी-कभी मुझे अपने आप पर गर्व होता है कि देखो मैंने किस तरह से परम्पराओं को सहेजा है वर्ना महानगरों ने तो विदेशी संस्कृति को ओढ़ लिया है। महानगरों से आने वाली हवाओं को मैं आशंकित होकर देखता हूँ, पर एक गुप्त बात आपको बताऊँ कि मैं भी बदलना चाहता हूँ पर इस बात को मैं सार्वजानिक रूप से स्वीकार नहीं कर सकता। वैसे ही जैसे दिन भर छह मीटर साड़ी में लिपटी और नई नवेलियों को सर पर घूंघट न रखने पर कोसती चुन्नू उर्फ़ चिन्मय की अम्मा अकेले मैं देवरानी की नाइटी पहनकर आईने मैं अपना फिगर देखती है। खैर मेरे चाहने न चाहने से कुछ नहीं होता मैं तो आपके सामने हांडी के कुछ चावल रख रहा हूँ आप टटोलकर तय कीजियेगा की पके हैं या नहीं ?
जरा सामने नजर उठा कर देखिये स्थूल काय शरीर ढोते, हर हाँफ के साथ "हर नर्मदे" कह सीढियां चढ़ते ये जो नजर आ रहे हैं वे हैं-पंडित हरेराम शास्त्री रिटायर्ड प्राचार्य, सरकारी स्कूल में पढ़ाकर उम्र गुजार देने के बाद पूरी दुनिया उद्दंड छात्रों का समूह नजर आती है। शास्त्री जी के बड़े सुपुत्र हैं शिवरंजन , ये उदारीकरण से कुछ पहले जवान हो चुकी पौध हैं, कसबे के महाविद्यालय से जितनी डिग्रियां बटोर सकते थे बटोर चुके आजकल ट्यूशन पढ़ाकर अच्छा खासा कमा लेते हैं पर लड़की वालों की निगाह में आज तक बेरोजगार हैं और शादी के शॉपिंग मॉल का आउटडेटेड माल हैं । आस पास की कन्याओं को इन्होंने चाहे जिस भी दृष्टि से देखा हो पर उनकी निगाह में ये ट्यूशन सर से अधिक कुछ नहीं हो पाए, शिवरंजन जी को आजकल एक नया शौक लगा है गम के प्याले पी-पीकर ( और कुछ ये पिताजी के डर से पी नहीं सकते) कविताओं की जुगाली करने का।
चलिए बात करते हैं शास्त्री जी के दूसरे पुत्र की, बंगलौर में सॉफ्टवेयर इंजीनियर सचिन मेरे और शास्त्री जी दोनों के गर्व का विषय है, सचिन की तरक्की को शास्त्री जी पुरखों का आशीर्वाद और अपनी कड़ी मेहनत का प्रतिफल मानते हैं। मंदी के दौर में नौकरी बचाए रखने के साथ सचिन ने हाल ही में विजातीय सहकर्मी से चार साल इश्क फरमाने के बाद घर में बिना बताये विवाह कर लिया। घर में न बताने के दो कारण थे एक तो शिवरंजन नाम का रोड़ा अभी भी अटका हुआ था दूसरे अंडे के ठेले की तरफ से भी निगाह बचाकर चलने वाले शास्त्री जी भला चिकनसूप प्रेमी बहु कैसे स्वीकार करते।
खैर, ऊंट की चोरी कब तक छिपी रहती, वो भी सूचना क्रांति के युग में। सूचना किसी विस्फोट की तरह आई और घर-घर चर्चित हुई। शास्त्री जी निढाल होकर बैठ गए अपने इस बेटे से उन्हें बहुत उम्मीदें थीं, नाराज होकर बेटे से मोबाईल का नाता भी तोड़ लिया। आखिरकार शास्त्राइन उर्फ़ सचिन की अम्मां ( इनके यही दो नाम प्रचलित हैं) ने कुछ तो पुत्र मोह से वशीभूत होकर और कुछ बुढापा सुख से कट जाने की आशा में पति को समझा-मना ही लिया और आज सचिन अपनी पत्नी शाश्वती को लेकर गृहनगर आ रहा है।
...............तो शास्त्री जी ने विजातीय बहु को अपना ही लिया मजबूरी वश ही सही। अंत भला तो सब भला । अरे ...........आप क्या सोचने लगे ! जरा ये भी सुनते जाइये की सचिन कि अम्मां ने अब तक विजातीय बहु को लाड़ प्यार का वास्ता देकर रसोई घर में झाँकने नहीं दिया है।
डिब्बा बंद सामग्री के बल पर गृहस्थी की शुरुआत करती शाश्वती को भी सबकुछ समझते हुए इसमें कोई आपत्ति नहीं हुई.......... तो जनाब यह समायोजन है।
पर मुझे उम्मीद है की किसी दिन परिवर्तन भी आएगा आखिर शुरुआत तो ऐसे ही होती है।